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कविता

भटका हुआ विश्वास हूँ

अनिल पांडेय


जिंदगी !
उठा पटक के इस दौर में
नहीं कहीं है ठौर जब
ढलते सूरज की रोशनी-सा
बहुत उदास हूँ

समय के कारनामों से
चिंतित तो नहीं रहा कभी
पर सच कहूँ
दूर हूँ बहुत
स्वयं के साये से

तिनका तिनका
जोड़ता बनता रहा
समय की शिला पर पटका गया
बिखरा बिखरा स्थिर
जीवन-मन का एहसास हूँ

जितना भी हूँ
अकेला हूँ
अपनी उदासी से हारा हुआ
अपना ही
भटका हुआ विश्वास हूँ

ख्वाहिश तो नहीं है
कुछ भी इधर
जी लेना चाहता हूँ फिर भी
साधन नहीं है साधना के मार्ग पर
क्या छुपाऊँ बहुत निराश हूँ।


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